गुरू आश्रय

दीक्षा की प्रार्थना लेकर जब दिलीप राय उन सन्त के पास पहुँचे। तो वह इस पर बहुत हँसे और कहने लगे- “तो तुम हमें श्री अरविन्द से बड़ा योगी समझते हो। अरे वह तुम पर शक्तिपात नहीं कर रहे, यह भी उनकी कृपा है।”

दिलीप को आश्चर्य हुआ- ये सन्त इन सब बातों को किस तरह से जानते हैं। पर वे महापुरुष कहे जा रहे थे, “तुम्हारे पेट में भयानक फोड़ा है। अचानक शक्तिपात से यह फट सकता है, और तुम्हारी मौत हो सकती है। इसलिए तुम्हारे गुरु पहले इस फोड़े को ठीक कर रहे हैं। इसके ठीक हो जाने पर वह तुम्हें शक्तिपात दीक्षा देंगे।

अपने इस कथन को पूरा करते हुए उन योगी ने दिलीप से कहा-
“मालूम है, तुम्हारी ये बातें मुझे कैसे पता चली? अरे अभी तुम्हारे आने से थोड़ी देर पहले सूक्ष्म शरीर से महर्षि अरविन्द स्वयं आए थे। उन्होंने ही मुझे तुम्हारे बारे में सारी बातें बतायी”।

उन सन्त की बातें सुनकर दिलीप तो अवाक् रह गये। अपने शिष्य वत्सल गुरु की करुणा को अनुभव कर उनका हृदय भर आया। पर ये बातें तो महर्षि उनसे भी कह सकते थे, फिर कहा क्यों नहीं?

यह सवाल जब उन्होंने वापस पहुँच कर श्री अरविन्द से पूछा, तो वह हँसते हुए बोले, “यह तू अपने आप से पूछ, क्या तू मेरी बातों पर आसानी से भरोसा कर लेता।”

दिलीप को लगा, हाँ यह बात भी सही है। निश्चित ही मुझे भरोसा नहीं होता। पर अब भरोसा हो गया। इस भरोसे का परिणाम भी उन्हें मिला निश्चित समय पर श्री अरविन्द ने उनकी इच्छा पूरी की।

यह सत्य कथा सुनाकर गुरुदेव बोले- “बेटा! गुरु को अपने हर शिष्य के बारे में सब कुछ मालूम होता है। वह प्रत्येक शिष्य के जन्मों-जन्मों का साक्षी और साथी है। किसके लिए उसे क्या करना है, कब करना है वह बेहतर जानता है। सच्चे शिष्य को अपनी किसी बात के लिए परेशान होने की जरूरत नहीं है। उसका काम है सम्पूर्ण रूप से गुरु को समर्पण और उन पर भरोसा। इतना कहकर वह हँसने लगे, तू यही कर। मैं तेरे लिए उपयुक्त समय पर सब कर दूँगा। जितना तू अपने लिए सोचता है, उससे कहीं ज्यादा कर दूँगा।”
“मुझे अपने हर बच्चे का ध्यान है।”

अपनी बात को बीच में रोककर अपनी देह की ओर इशारा करते हुए बोले- “बेटा! मेरा यह शरीर रहे या न रहे, पर मैं अपने प्रत्येक शिष्य को पूर्णता तक पहुँचाऊँगा। समय के अनुरूप सबके लिए सब करूंगा। किसी को भी चिन्तित-परेशान होने की जरूरत नहीं है।”
“गुरुदेव के यह वचन गुरु पूर्णिमा पर प्रत्येक शिष्य के लिए महामंत्र के समान हैं। अपने गुरु के आश्रय में बैठे किसी शिष्य के लिए कोई चिन्ता और भय नहीं है।”
-अखण्ड ज्योति, जुलाई 2003 पृष्ठ 39

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