कर्म का फल

अगर किसी के कर्म का फल तुरंत नहीं मिलता, तो इससे यह नहीं समझना चाहिए कि उसके भले-बुरे परिणाम से वह हरदम के लिए बच गया। कर्मफल एक ऐसा अमिट तथ्य है, जो आज नहीं तो कल भुगतना ही पड़ेगा। कभी-कभी इन परिणामों में देर इसलिए होता है कि ईश्वर मानवीय बुद्धि की परीक्षा करना चाहता है कि व्यक्ति अपने कत्र्तव्य धर्म समझ सकने और निष्ठापूर्वक पालन करने लायक विवेक बुद्धि संचय कर सका या नहीं। जो दण्ड भय से डरे बिना दुष्कर्मों से बचना मनुष्यता का गौरव समझना है और सदा सत्कर्मों तक ही सीमित रहता है, समझना चाहिए कि उसने सज्जनता की परीक्षा पास कर ली और पशुता से देवत्व की ओर बढऩे का शुभारंभ कर दिया।

दंड देकर तो विवेक रहित जानवरों को गलत मार्ग पर चलने से रोका जाता है। मानवीय अंत:करण की विकसित चेतना तभी अनुभव की जा सकेगी, जब वह कुमार्ग पर चलने से रोके और सन्मार्ग के लिए प्रेरणा प्रदान करे। लाठी के बल पर भेड़ों को इस या उस रास्ते पर चलाने में गड़रिया सफल रहता है। सभी जानवर इसी प्रकार दंड भय दिखाकर उसे जोते जाते हैं। यदि हर काम का तुरंत दंड मिलता और ईश्वर बलपूर्वक किसी मार्ग पर चलने के लिए विवश करता, तब आदमी भी जानवरों के जैसा ही होता , उसकी खुद की चेतना का विकास हुआ की नागि इसका पता कैसे चलता।

ईश्वर या खुदा ने मनुष्य को भले या बुरे कर्म करने की स्वतंत्रता इसीलिए प्रदान की है कि वह अपने विवेक को विकसित करके भले-बुरे का अंतर करना सीखे और दुष्परिणामों के शोक संतापों से बचने एवं सत्परिणामों का आनंद लेने के लिए स्वत: अपना पथ निर्माण कर सकने में समर्थ हो। उन्नति को अपनाने वाला विवेक और कर्त्तव्य परायणता यह दो ही कसौटी मनुष्यता का आत्मिक स्तर विकसित होने की है। इस आत्म विकास पर ही जीवनोद्देश्य की पूर्ति और मनुष्य जन्म की सफलता निहित है। ईश्वर खुदा चाहता है कि व्यक्ति अपनी स्वतंत्र चेतना का विकास करे और विकास के क्रम से आगे बढ़ता हुआ पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त करने की सफलता प्राप्त करे।

अगर ईश्वर को ऐसा लगता कि बुद्धिमान बनाया गया आदमी जानवरों के बराबर ही मूर्ख ही बना रहेगा, तो हो सकता है कि भगवान ने आदमी को भी दण्ड के बल पर चलाने की व्यवस्था की होती। तब झूठ बोलते ही जीभ में छाले पडऩे, चोरी करते ही हाथ में फोड़ा उठ पडऩे, बेईमानी करते ही बुखार आ जाने, कुदृष्टिï डालते ही आँख दु:खने लगने, कुविचार आते ही सिर दर्द होने जैसे दण्ड मिलने की तुर्त-फुर्त व्यवस्था बनी रही होती, तो किसी के लिए भी दुष्कर्म करना संभव ही न होता। लोग जब उसमें लाभ की अपेक्षा प्रत्यक्ष हानि देखते तो दुष्कर्म करने की हिम्मत न करते। ऐसी स्थिति में मनुष्य की स्वतंत्र चेतना, विवेक बुद्धि और आंतरिक महानता के विकसित होने का अवसर ही नहीं आता और आत्म विकास के बिना पूर्णता के लक्ष्य को प्राप्त कर सकने की दिशा में प्रगति ही न होती। अतएव परमेश्वर के लिए यह उचित ही था कि मनुष्य को अपना सबसे बड़ा, सबसे बुद्धिमान और सबसे जिम्मेदार बेटा समझकर उसे कर्म करने की स्वतंत्रता प्रदान करे और यह देखे कि वह मनुष्यता का उत्तरदायित्व संभाल सकने में समर्थ है या नहींï? परीक्षा के बिना वास्तविकता का पता भी कैसे चलता और उसे अपनी इस सर्वश्रेष्ठ रचना मनुष्य में कितने श्रम की सार्थकता हुई यह कैसे अनुभव होता।

पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

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