प्रकृति के नियंत्रक भी थे पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य

युगावतार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य एवं माता भगवती देवी शर्मा का इस धरती पर अवतरण इस संसार की बिगड़ती हुई व्यवस्था का संतुलन बनाने के लिए हुआ था। प्रकृति के नियंत्रक भी थे पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य . परन्तु की वस्तु को व्यक्ति ठीक तभी कर सकता है जब वह उसके जर्रे जर्रे से परिचित हो वंहा से उसका तदात्म्य हो चूका हो और फिर आज की व्यवस्था का संतुलन बनाना जंहा पूरा प्राकृतिक संतुलन ही लड़खड़ा गया है। जिव,जगत, वनस्पति , जल, वायु, मौसम परिवर्तन सभी कुछ बिगड़ चूका है। जो व्यक्ति इन परिस्थितियों, पदार्थो से एकाकार नहीं होगा वह नियंत्रण करेगा भी तो कैसे पूज्य आचार्य जी में और प्रकृति में एकात्मता थी उनके जीवन के क्रिया कलापों को देखकर ऐसा लगता है कि प्रकृति की कण कण की अनुभूति से ओत प्रोत थे। अपने हिमालय प्रवास के कुछ छणों का वर्णन ‘सुनसान के सहचर’ नामक पुस्तक में उन्होंने किया है। जिसमें उनके प्रकृति से एकात्म होने का परिचय मिलता है। जिनके कुछ अंश उल्लेखनीय हैं।

प्रकृति के नियंत्रक भी थे पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य

आज कुटिया के बहार निकलकर इधर उधर भृमण करने लगता तो चारो ओर सहचर दिखाई देने लगे। विशाल वृक्ष पिता और पितामह जैसे दिखने लगे। कषाय बल्कलधारी भोजपत्र के पेड़ ऐसे लगते थे मानो गेरुवा कपडा पहने कोई महात्मा खड़े होकर तप कर रहे हों। छोटे छोटे लता गुल्म नन्हे मुन्हे बच्चे बच्चियों की तरह पंक्ति बनाकर बैठे थे। पुष्पों में उनके सर सुशोभित थे। वायु के झोंको के साथ हिलते हुए ऐसे लगते थे मानो प्रारंभिक पाठशाला के छोटे छात्र सिर हिलाकर पहाड़े याद कर रहे हो। जिधर भी दृष्टि उठती उधर एक विशाल कुटुंब अपने चारों ओर बैठा नजर आता था। उनके न जबान थी न ही बोलते थे पर उनकी आत्मा में रहने वाला चेतन बिना शब्दों के ही बहुत कुछ कहता था। प्रकृति के हर पदार्थ जीव जगत से इतना तादात्म्य था की वसुधा का हर कण उन्हें अपना लगता है। सबसे अपना आत्मीय सम्बन्ध है। उन्हें ऐसा लगता था। इसीलिए बिगड़ते हुए पर्यावरण को देखकर उन्होंने पर्यावरण संरक्षण आंदोलन ही चला दिया था जिसमें उनसे जुड़ा हुआ हर व्यक्ति पर्यावरण बचाने का संकल्प लेता है। प्रकृति की इतनी सन्निकटता के कारण ही प्रकृति उनकी सहयोगी भी रही। वह किसी नन्हे बच्चे की तरह उनके आदेश का पालन भी करती थी।

हरिद्वार में शांतिकुंज आश्रम का निर्माण शुरू ही हुआ था उन्ही दिनों मजदूरी करने एक मजदूर आया जिसका नाम था राजकुमार। निर्माण कार्य साथ ही आवश्यकता पड़ने पर वह परम पूज्य गुरुदेव व माता जी को रिक्शे में बिठाकर किसी भी कार्य के लिए बाजार भी लेकर जाता था। माताजी ने उसका नाम मोती रख दिया था। एक दिन गुरुदेव ने कहा कि कनखल चलना है। मोती रिक्शा लेकर चल पड़ा वर्षा के दिन थे बदल घुमड़ रहे थे मोती का मन तो घबराया लेकिन रिक्शा लेकर चल दिया। वापस आते समय देखा कनखल में पानी नहीं गिरा था। परन्तु हरिद्वार में बहुत पानी गिरा था। हरिद्वार की एक सूखी नदी है जो खड़खड़ी नामक स्थान पर आकर गंगा में मिलती है। उसपर रपटा बना था। पहाड़ की ओर से उसमे अथाह पानी आ रहा था। नदी के दोनों ओर पैदल एवं वाहन वाले लोग खड़े थे। किसी की हिम्मत नहीं थी उस रपटे पर पैर रखने की उसी समय मोती रिक्शा लेकर आ गया।

सायंकाल हो रहा था माता जी ने कहा मोती रिक्शा ले चलो आज मोती कहता है कि माताजी जी का आदेश सुनकर मै घबरा गया कि आज ये तो डूबेंगे और हमें भी ले डूबेंगे . उस समय वह उनके चमत्कारी व्यक्तित्व से परिचित नहीं था वह उन्हें बाबा जी ही समझता था। माताजी के आदेश में इतना दबाव था कि मोती इंकार न कर सका और और उसी उफनती नदी के रपटे पर उसने रिक्शा बढ़ा दिया। अभी दो चार कदम ही गया होगा कि रिक्शे की पहिया बालू में जैम हो गई। ऐसा लगा कि रिक्शा पलट जायेगा। उधर पानी की बहाव की और देखा तो पहाड़ जैसी जलराशि मतवाले हाथी की तरह हाहाकार करके आ रही थी। इन सब परिस्थितियों को एक छण में मोती ने देखा तथा जीवन की आस छोड़ कर रिक्शे से नीचे उतरने लगा क्योंकि रिक्शा रुक गया था। उसे देखकर गुरुदेव मुस्कराये तथा माताजी ने आने वाली धारा की ओर हाथ उठाया ऐसा लगा जैसे पानी की प्रवाह रोक रही हों। हाथ उठते ही पानी का प्रवाह रुक गया पूरी सड़क खाली हो गई पहाड़ों की धारा वंही रुक गई। मोती ने देखा सड़क खाली तो जल्दी से पर कर गया उस पार जाने के बाद माता जी ने कहा कि रिक्शा मोड़ो मोती ने रिक्शा मोड़ा माताजी ने हाथ उठाया पानी फिर चलने लगा। उस दिन मोती को लगा ये तो अलौकिक पुरुष हैं।