योग क्या है ?

गीता में योग की परिभाषा योगःकर्मसु कौशलम् (2-50) की गयी है । दूसरी परिभाषा समत्वं योग उच्यते(2-48) है । कर्म की कुशलता और समता को इन परिभाषाओं में योग बताया गया है । पातंजलि योग दर्शन में योगश्चिय वृत्ति निरोधः (1-1) चित्त की वृत्तियों के निरोध को योग कहा गया है । इन परिभाषाओं पर विचार करने से योग कोई ऐसी रहस्यमय या अतिवादी वस्तु नही रह जाती कि जिसका उपयोग सवर्साधारण द्वारा न हो सके । दो वस्तुओं के मिलने को योग कहते हैं । पृथकता वियोग है और सम्मिलन योग है । आत्मा का सम्बन्ध परमात्मा से जोड़ना योग होता है ।

जीवत्म परमात्म संयोगो योगःकहकर भगवान याज्ञवल्क्य ने जिस योग की विवेचना की वह केवल कल्पना नहीं, अपितु हमारे दैनिक जीवन की एक अनुभूत साधना है और एक ऐसा उपाय है जिसके द्वारा हम अपने साधारण मानसिक क्लेशों एवं जीवन की अन्यान्य कठिनाइयों का बहुत सुविधापूर्वक निराकरण कर सकते हैं । हमारे अन्दर मृग के कस्तूरी के समान रहने वाली जीवात्मा एक ओर मन की चंचल चित्तवृत्तियों द्वारा उसे ओर खींची जाती है और दूसरी ओर परमात्मा उसे अपनी ओर बुलाता है । इन्हीं दोनों रज्जुओं से बँध कर निरन्तर काल के झूले में झूलने वाली जीवात्मा चिर काल तक कर्म कलापों में रत रहती है । यह जानते हुए भी कि जीवात्मा दोनों को एक साथ नहीं पा सकती और एक को खोकर ही दूसरे को पा सकना सम्भव है वह दोनों की ही खींचतान की द्विविधा में पड़ी रहती है । इसी द्विविधा द्वारा उत्पन्न संघर्षो को संकलन समाज और समाजों का सम्पादन विश्व कहलाता है ।

उर्पयुक्त विवेचना का एक दूसरा स्वरूप भी है और वह यह है कि जीवात्मा और परमात्मा के बीच मन बाधक के रूप में आकर उपस्थित होता है । कुरुक्षेत्र में पार्थ ने मन की इस सत्ता से भयभीत होकर ही प्रार्थना की थी चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवदृढ़म । मन मनुष्य को वासना की ओर खींचकर क्रमशःउसे परमात्मा से दूर करता जाता है । उसे सीमित करना पवन को बन्धन में लाने के समान ही दुष्कर है । आत्मा और परमात्मा के निकट आये बिना आनन्द का अनुभव नहीं होता । ज्यों-ज्यों जीवात्मा मन से सन्निकटता प्राप्त करती जाती है वह क्लेश एवं संघर्षों से लिपटती जाती । आत्मा का एकाकार ही परमानन्द की स्थिति है । सन्त कबीर ने इस एकाकार को ही आध्यात्मिक विवाह का रूप दिया है और गाया है ।

व्यावहारिक रूप से योग का तात्पर्य होता है जोड़ना या बाँधना । जिस प्रकार घोड़े को एक स्थान पर बाँधकर उसकी चपलता को नष्ट कर दिया जाता है उसी प्रकार योग द्वारा मन को सीमित किया जा सकता है । विस्तार पाकर मन आत्मा को अच्छादित न करले इसलिए योग की सहायता आवश्यक भी हो जाती हे । भक्तियोग और राजयोग से ऊपर उठाकर त्रिकालयोग के दर्शन होते हैं और यही सर्वश्रेष्ठ योग है ।

इन्हीं तीनों योगों का व्यावहारिक साधारणीकरण कर्मयोग है और आज के संघर्षमय युग में कर्मयोग ही सबसे पुण्य साधना है ।
संसार और उसकी यथार्थता ही कर्मयोगी का कार्य क्षेत्र है । फल के प्रति उदासिन रहकर कर्म के प्रति जागरूक होकर ही मनुष्य क्रमशः मन पर विजय पाता है और परमात्मा से अपना सम्बन्ध सुदृढ़ करता है । कर्मयोग की प्रेरणा किसी कर्मयोगी के जीवन को आदर्श मानकर ही प्राप्त होती है । अपने कर्तव्य के प्रति तल्लीनता तथा विषय जन्य भावनाओं के प्रति निराशक्ति ही कर्मयोग की पहली सीढ़ी है ।

कर्मयोगी के जीवन में निराशा अथवा असफलता के लिए कोई स्थान नहीं क्योंकि एक तो वह इनकी सत्ता ही स्वीकार नहीं करता और दूसरे उसकी दृष्टि कर्म से उठकर परिणाम तक पहुँच ही नहीं पाती । यहाँ तक की सच्चा कर्मयोगी परमात्मा की प्राप्ति के प्रति भी बीत राग हो जाता है । उस स्थिति पर तस्माद्योगी भवाजुर्न के अनुसार कर्मयोगी वह पद प्राप्त कर लेता है जहाँ मैं तुमसे हूँ एक, एक हैं जैसे रश्मि प्रकाश के रूप में आत्मा और परमात्मा में कोई अन्तर नहीं रह जाता ।

योग शब्द का अर्थ-क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है । जिस योग का जो विशेष अर्थ उद्देश्य होता है, उसका संकेत करने वाला शब्द आगे जोड़ दिया जाता है । जैसे भक्तियोग का अर्थ है-ब्रह्मसत्ता,भक्तिभाव से जुड़े रहने की जीवन पद्धति । ज्ञानयोग का अर्थ है-ज्ञान साधना द्वारा सर्वव्यापी सत्ता की अखण्ड अनुभूति । मन्त्रयोग अर्थात मन्त्र जप द्वारा आत्म चेतना का ब्रह्म चेतना से समरसत्ता प्राप्त करने का प्रयास । कर्मयोग को प्रखर कर्मनिष्ठा एक जीवन साधना कहा गया है । हठयोग यानी पूर्ण स्वास्थता के लिए की जाने वाली विशिष्ट शारीरिक मानसिक क्रियाओं का साग्रह अभ्यास ।

भगवद्गीता में योग और योगी के स्वरूप का जहाँ कहीं भी उल्लेख हुआ है, वही योग के ऐसे ही लक्षणों का संकेत-निर्देश हुआ है, जो आत्मचेतना की ब्रह्मचेतना से जोड़ने पर आनन्द-उल्लास सक्रियता-स्फूत, कर्मनिष्ठा-चरित्रनिष्ठा के रूप में प्रत्यक्ष देखे जाते हैं । साधक के व्यक्तित्व में उस प्रकाश की ये अभिव्यक्तियाँ ही योग सफलता के चिन्ह हैं । इसी तथ्य को गीता में भिन्न-भिन्न ढंग से प्रतिपादित किया गया है, यथा-समत्वं योग उच्यते, अर्थात समत्व बुद्धि सुसन्तुलित मनःस्थिति ही योग है । योग संन्यस्त कर्माम् अर्थात संन्यस्त भाव से निलप्त एवं उत्साहपूर्ण रहकर काम करना योग है ईक्षते योग युक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनम् -समदर्शी बुद्धि से सर्वत्र परमात्मा को देखने वाले व्यक्ति योग युक्त होते हैं ।

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