रंगभूमि और आज का यथार्थ

कालजयी साहित्य पुरुष कथाकार प्रेमचंद जी का वह साहित्य जिसने अपने समय में हर पढ़ने वालों में स्वतत्रता की आग पैदा कर दी थी। जिसे समझकर हर व्यक्ति के मन में उन परिस्थियों से लड़ने का भाव पैदा हो गया था। आज उन्ही में से ‘रंग भूमि’ उपन्यास विवादों में है। जिसको पढ़ कर आज के तथा कथित मार्डन लोग यह कहते हैं कि इसमें तो दुःख ही दुःख है , तथा इसके द्वारा प्रेमचंद ने जातिवाद को बढ़ाया है। वास्तव में आज के आधुनिकता की सच्चाई है। आज का हर विकसित व्यक्ति दुनिया को अपने ही आईने से देखने लगा है। वह यह सोचने लगा है कि जैसे हम हैं वैसे ही सारी दुनिया होनी चाहिए।

हमें दूसरों के दुःख से दुखी नहीं होना चाहिए। साहित्यकार को सच नहीं कहना चाहिए। वास्तव में पत्रकारिता ही एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा समाज की सच्चाई की जानकारी दुनिया को मिलती है। लोग तो पड़ोस में कौन भूखा है यह भी नहीं देखना चाहते साहित्यकार ही एक ऐसा व्यक्ति है जो समाज की पीड़ा को व्यक्त करता है। लेकिन लोग उसे नकारात्मक तरीके से लेते हैं।

समाज के ऐसे ही लोग जब सत्ता में जाते हैं तब वे भारत को अमेरिकी आईने से देखते हैं। और कहते हैं कि लोगों ने क्यों नहीं किया उन्हें यह नहीं दिखाई देता कि प्रेमचंद का किसान सवा शेर गेंहू एक जमींदार का ऐडा कर पाया। उसकी पीढ़ियां उसी के यंहा बेगार करती रही तो आज का किसान ही कहा इतना समृद्ध हो गया जो अमेरिका के किसी लैंडलॉर्ड का मुकाबला कर सके। आज का किसान भी तो वंही खड़ा है वह बेगार नहीं करता है तो आत्महत्या करता है। अथवा आज के जमींदार सरकारी तंत्र द्वारा उसकी जमीं टके में नीलाम कर दी जाती है। सरकारी तंत्र में बैठे जमींदार कभी ऐसे किसानों का दर्द समझना नहीं चाहते। क्योकि ऐसा करने से उन्हें कमीशन नहीं मिलेगा।

भारत की आजादी के इतने दिनों बाद भी भारत के नेता यह नहीं समझ पाए कि हमारे देश के गरीब किसानों का क्या होगा। न शिक्षा में सुधार हो पाया कि लोग उसके द्वारा स्वावलम्बी बन सकें अपनी समझदारी विकसित करके राजनैतिकों की जाति , धर्म, सम्प्रदाय, क्षेत्र , भाषा,प्रान्त आदि की राजनीती समझ सकें। जिससे उनके वोट भुनाए न जा सके। न कृषि का औद्योगिकीकरण ही हो पाया की खेती से ही उद्योग निकल सके।

परमाणु अनुसन्धान तो हो गया परन्तु कोई ऐसी खोज नहीं की जा सकी कि जिससे बिजली, पानी आदि किसानो को उपलब्ध करवाकर उन्नतशील कृषि की जा सके यदि लालू प्रसाद जैसे नेता ने पारम्परिक व्यवसाय की बात भी कर दी तो उससे भारत का अपमान होने लगा विदेशियों को यदि कुल्हड़ में चाय मिलेगी तो वे भारत को बैकवर्ड कहेंगे परन्तु उन्हें यह नहीं दिखता जब प्रतिवर्ष भारत की तमाम प्रतिभाओं को विदेशी पैसों से खरीद वे देश से पलायन कर जाती हैं तो क्या विदेशो में हमारा सम्मान होता है। न गरीब को रोटी और न रोजगार मिलता है और न प्रतिभाओं को उनके काम करने में सहयोग।

ऐसे लोगों को साहित्य क्यों अच्छा लगेगा क्योंकि उसमे वर्तमान समाज के माध्यम से एक समता मूलक समाज की कल्पना की गई है। जब एक व्यक्ति इस साहित्य को पढ़ेगा तो उसके भीतर संवेदना उमड़ेगी और वह अपने आस पास की परिस्थितियों को ठीक करने में लग जायेगा जिससे लोगों को कष्ट हो रहा है। व्यक्ति अपने आप उसके लिए समय श्रम और धन निकालने लगेगा। परन्तु यदि ऐसा होने लगा तो उनका क्या होगा जो समाज और व्यक्ति का शोषण ही करना चाहते हैं उन्हें लोगों का दुःख क्यों अच्छा लगेगा।

अच्छा हो कि हम अपनी नकारात्मक सोंच त्यागे सकारात्मक दिशा में सोंचे तो वंही से हमें कुछ करने की प्रेरणा मिल जाएगी। अब भारत वासियों को अपने आपको जगाना पड़ेगा। भारत का प्राण त्याग है। त्याग ही समता मूलक समाज आध्यात्मिक साम्यवाद की स्थापना कर सकता है। समय पर वक्ष चीरकर यह त्याग भाव निकल रहा है जो स्वैच्छा से त्याग नहीं कर सकता। महाकाल उससे छीन लेगा। त्याग भाव जागते ही व्यक्ति जाति सम्प्रदाय आदि वादों से ऊपर उठ जायेगा। फिर न किसी जातिवादी नेता की चलेगी न सम्प्रदाय वादी आतंकवादी की और तब समाज के वास्तविक आवश्यकता समझ में आएगी और देश का वास्तविक विकाश होगा।