प्रतिभा

प्रतिभा एक दैवी स्तर की विधुत चेतना है। जो व्यक्ति के व्यक्तित्व और कर्तुत्व में असाधारण स्तर की उत्कृष्टता भर देती है। उसी के आधार पर अतिरिक्त सफलताएं आश्चर्यजनक मात्रा में उपलब्ध की जाती हैं। साथ ही इतना और जुड़ता है कि अपने लिए असाधारण श्रेय, सम्मान और दूसरों के लिए अभ्युदय के मार्ग पर घसीट ले चलने वाला मार्गदर्शन वह कर सके मांझी की तरह अपनी नाव को खेकर स्वयं पार उतरे और उसपर बिठाकर अन्यान्यों को भी पार उतारने का श्रेय प्राप्त कर सके तथा गिरों को उठाने डूबतों को उबारने और किसी तरह समय गुजारने वालों को उत्कृष्ट की उचाई तक उछालने में समर्थ हो सके। यदि किसी को वरिष्टता और विष्टिता का श्रेय मिल रहा है तो समझना चाहिए कि वह उसकी विकसित प्रतिभा का ही चमत्कार है।

सत्य में हजार हाथी के बराबर बल होता है। इस कथन में सच्चाई भी हो सकती है। पर यदि उसके साथ प्रतिभा भरी जागरूकता व साहसिकता को भी जोड़ दिया जाय तो सोना और सुगंध के सम्मिश्रण जैसी बात बन सकती है। तब उसे हजार हाथियों की अपेक्षा लाख एरावतों जैसी शक्ति सम्पन्नता भी कहा जा सकता है। उसे मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी शक्ति सम्पन्नता एवं सौभाग्यशाली भी कहा जा सकता है।

प्रतिभा के संपादन और अभिवर्धन में जिसकी भी अभिरुचि बढ़ती है जिसने भी अपने गुण कर्म स्वाभाव को सुविकसित बनाने के लिए प्रयत्नरत रहने में अपनी विशिष्टता की सार्थकता को समझा है तो समझना चाहिए की उसी को अपना भविष्य उज्ज्वल बनाने का अवसर मिला है। उसी को जनसाधारण का स्नेह सहयोग मिला है। संसार भर में जंहा भी खरे स्तर की प्रगति दृश्टिगोचर हो तो समझना चाहिए कि उसमे समुचित प्रतिभा का ही प्रमुख योगदान है।

ईश्वरीय व्यवस्था में यही निर्धारण है कि बोया जाय उसके बाद कटा जाय पहले काट लें और उसके बाद बोयें यह नहीं हो सकता लोक सेवी उज्जवल छवि वाले लोग ही प्रायः वरिष्ठ विश्वस्त और उच्चस्तरीय योजनाओं के लिए प्रतिनिधि चुने जाते हैं। विशिष्ट पुरुषार्थ का परिचय देने के उपरांत ही पुरुस्कार मिलते हैं। परिस्कृत प्रतिभा ऐसी सम्पदा है जिसकी तुलना में मनुष्य को गौरान्वित करने वाला और कोई साधन नहीं है। उसे प्राप्त करने के लिए यह सिद्ध करने की आवश्यकता है कि मानवीय गरिमा को गौरान्वित करने वाली धर्म धारणा के क्षेत्र में कितनी उदारता और कितनी सेवा साधना का परिचय देने का साहस जुटा पाया।

प्रतिभा का प्रशिक्षण और परिवर्धन आदर्शवादी गतिविधयों में बढ़ चढ़ कर भाग लेने से ही होता है। प्रतिभा परिष्कार के कुछ मूलभूत सिद्धांत हैं इन्हे उन सभी को ह्रदयंगम करना चाहिए जो सम्मुनत सुसंस्कृत एवं यशस्वी सफल जीवन जीने के उत्सुक हैं।

प्रथम सिद्धांत अथवा आधार है – क्षमताओं का अभिवर्धन – प्रतिभा के उपासक इस दल दल उबरते हैं और अपनी निखरती क्षमताओं को बचाकर मूल्य वान पूजी की तरह एकत्रित करते हैं। जो हस्तगत है उसका श्रेष्टतम सदुपयोग करते हैं। यही है कल्पवृक्ष का उत्पादन एवं उसका उद्देशयपूर्ण सदुपयोग क्रियान्वन।

दूसरा चरण – अपने व्यक्तित्व को चुंबकीय , आकर्षक एवं विश्वास स्तर का विकसित करना यह मनुष्यता के साथ जुड़ने वाला प्राथमिक गुण है। प्रतिभावानों के होंठो पर मंद मुस्कान देखी जाती है। इसी आधार पर यह जाना जाता है कि वे अपने आप में संतुष्ट और प्रसन्न हैं। दूसरे भी ऐसे ही लोगों का सहारा ताकते और साथ देते हैं।

तीसरा चरण- सुववस्था – अस्त-व्यस्त स्थिति में ही प्रचुर मात्रा में साधन रहते हुए लोग असफल रहते और उपहास का पात्र बनते है। प्रतिभाएं छण छण में अपने कार्यों और नियोजनों समीक्षा करती रहती हैं। तथा उसे सही बनाने के लिए उसमे जो हेर फेर करना आवश्यक होता है उसे बिना हिचक सफलता पूर्वक करती है।

चौथा और अंतिम सूत्र है – अग्रगमन – नेतृत्व – यह उत्साह साहस और आत्म विश्वास का प्रतीक है। अपनी स्थिति को अनुपयुक्त मानते हुए भी उस परिधि में एक आगे नहीं रख पाते ऐसों के बीच उन्ही को मनस्वी माना जाता है जो उचित के प्रति अटूट आस्था रखें और जो करना चाहिए उसे अन्यों का समर्थन सहमति न मिलने पर भी एकाकी कर दिखाएँ। इसे दूध गरम करते ही मलाई के तैर कर ऊपर आ जाने के समकक्ष समझा जा सकता है।

प्रतिभाओं में यह सद्गुण उनके द्वारा उपार्जित स्तर का बड़ी मात्रा में पाया जाता है। वे औरों का मुँह तकते हुए नहीं बैठे रहते वरन आगे बढ़कर औरों को अपने चुमब्क्तत्व के कारण जोड़ते और साथ चलने के लिए बाधित करते हैं। सफलताओं का यही स्रोत है।

प्रतिभाओं का प्रयोग जंहा कंही भी जब कभी भी औचित्य की दिशा में हुआ है। वंहा उन्हें हर प्रकार से सम्मानित पुरस्कृत किया गया है। अच्छे नम्बर लेन वाले छात्र पुरस्कार जीतते हैं और क्षात्रवृत्ति के अधिकारी बनते हैं। सैनिकों में विशिष्टता प्रदर्शित करने वाले वीरता पदक पाते हैं। अधिकारीयों की पदोन्नति होती है। लोकनायकों के अभनन्दन किये जाते हैं। संसार उन्हें महामानव सम्मान देता है। तथा भगवान उन्हें हनुमान, अर्जुन, जैसा अपना सघन आत्मीय वरण करता है।

बड़े कामों का दायित्व उठाने और उन्हें करने की जिम्मेदारी असाधारण क्षमता सम्पन्नों को ही सौपी जाती है। यों महत्त्व तो टट्टुओं और बकरों का भी है। पर उनकी पीठ पर हाथी वाली अम्बारी नहीं राखी जा सकती है। सौ खरगोश मिलकर भी एक चीते से दौड़ में आगे नहीं निकल सकते। बड़े कामों के लिए बड़ों की तलाश करनी पड़ती है।

प्रतिभाओं को दोहरे मोर्चे पर लड़ने का अभ्यास करना चाहिए उनमे एक है दुष्प्रवृति उन्मूलन और दूसरा सत्प्रवृति सम्बर्धन। इन प्रयासों का शुभारंभ अपने निज जीवन से करके इन्हे परिवार में प्रचलित किया जा सकता है। इसके बाद पड़ोसियों स्वजन सम्बन्धियों परिचित घनिष्टों और उन सबको अलोक वितरण से लाभान्वित किया जा सकता है। जो अपने प्रभाव परिचय क्षेत्र में आते हैं। जो समय को पहचानते और बिना अवसर चूके अपने साहस का परिचय देते हैं। उन्हें प्रतिभा का धनी बनने में किसी अतिरिक्त अनुष्ठान करने की आवश्यकता नहीं पड़ती।

ताजमहल, मिश्र के पिरामिड, चीन की दिवार, पीसा की मीनार, स्वेज और पनामा नहर, हालैंड द्वारा समुद्र को पीछे धकेलकर स्थान पर सुरम्य औद्योगिक नगर बसा लेने जैसे अद्भुत सृजन कार्य जंहा तंहा विनिर्मित हुए दिखाई पड़ते हैं। वे आरम्भ में किन्ही एकाध संकल्पवानों के ही मन मानस में उभरे थे। बाद में सहयोगियों की मंडली जुटती गई और असीम साधनों की व्यवस्था बनती चली गई। नवयुग का अवतरण इन सबमे सबसे बड़ा कार्य है। क्योकि उसके साथ संसार के समूचे धरातल व जनसमुदाय का सम्बन्ध किसी न किसी प्रकार जुड़ता है। इतने बड़े परिवर्तन एवं प्रयास के लिए अग्रदूत बनें ? अग्रिम पंक्ति में खड़ा कौन हो ? आवश्यक छमता और सम्पदा कौन जुटाए निश्चय ही यह नियोजन असाधारण एवं अभूतपूर्व है। इसे बिना मनस्वी साथी सहयोगियों के संपन्न नहीं किया जा सकता।

परिष्कृत प्रतिभा दुर्बल सहयोगियों की सहायता से बड़े से बड़े काम संपन्न कर लेती है। जबकि डर कर समर्थ व्यक्ति भी हाथ पैर फुला बैठते हैं। महान शक्तियों ने जिन पर भी अनुग्रह किया है। उसे सर्व प्रथम उत्कृष्टता अपनाने और प्रबल पुरूस्वार्थ में जुटने की प्रेरणा देता है। इसके बाद ही उनकी सहायता काम आती है। कुपात्रों को यह अपेक्षा करना व्यर्थ है। कि उन्हें अनायास ही मानवीय या दैवीय सहायता उपलब्ध होगी और सफलताओं, सिद्धियों, विभूतियों से अलंकृत करके रख देगी। दुर्बलता धारण किये रहने पर तो प्रकृति देव भी दुर्बल का घातक होता है।

प्रतिभा जिधर भी मुड़ती है उधर ही मैदान साफ करती चलती है। व्यक्ति की अन्तः चेतना जिसे प्रतिभा भी कहते हैं। इतनी सबल है कि अनेक अभावों और व्यवधानों को रौंदती हुई वह उन्नति के शिखर तक जा पहुंचने में समर्थ होती है। प्रतिभा वस्तुतः वह सम्पदा है, जो व्यक्ति की मनस्विता, ओजस्विता, तेजस्विता के रूप में बहिरंग में प्रकट होती है।

महत्वपूर्ण सृजन प्रयोजनों को कल्पना से आगे बढ़कर योजना तक और योजना को कार्यान्वित करते हुए सफलता की स्थिति तक पहुंचने को सुनिश्चित छमता भी उसी प्रतिभा में हैं। जिसे अध्यात्म की भाषा में प्राणाग्नि एवं तेजस्वी मानसिकता कहते हैं। प्रतिभा को आत्मसाथ करने के उपरांत सामान्य परिस्थितियों में जन्मा और पला मनुष्य भी परिस्थितिजन्य अवरोधों को नकारता हुआ प्रगति के पथ पर अग्रगामी और उर्धगामी बनता चला जाता है। अपनी प्रस्तुत समर्थता को जगाने उभारने के लिए यदि समुचित रूप से कटिबद्ध हो चले तो तो उस प्रतिभा का धनी न बन सके जिसकी यश गाथा गाने में लेखनी और वाणी को हार माननी पड़ती है।

बुरे लोगों के बीच बुराई से संचालित घटनाओं के मध्य समय गुजारने वाला उनमें रूचि लेने वाला व्यक्ति क्रमशः पतन और पराभव के गर्त में ही गिरता जाता है। साथ में यह भी सही है कि मनीषियों, चरित्रवानों, सत्साहसी लोगों के संपर्क में रहने पर उनका प्रभाव अनुदान सहज ही खींचता चला आता है। और व्यक्ति को उठाने और उसको उन्नत बनाने में असाधारण सहायता करता है।

यत्थान का अभिलाषी अभीष्ट अभ्युदय के लिए सरंजाम न जुटा सके तो दूसरों पर विश्वास करके उन्हें मित्र सहयोगी बनाया जा सकता है। श्रद्धा के सहारे पाषाण प्रतिमा में देवता प्रकट होते हैं। फिर कोई कारण नहीं है कि अपनी श्रेष्टता को समझा, उभरा सँजोया जा सके तो व्यक्ति ऐसी समुन्नत स्थिति तक न पहुंच सके जिस तक जा पहुंचने वाले हर स्तर पर सफलता अर्जित करके दिखाते हैं।

सबसे बड़ा सुयोग इन दिनों है जबकि नव सृजन के लिए प्रचंड वातावरण बन रहा है। उज्ज्वल भविष्य के निर्माण में नियंता का सारा ध्यान और प्रयास नियोजित है। ऐसे में हम भी उसके सहभागी बनकर अन्य सत्परिणामों के साथ ही प्रतिभा परिष्कार का लाभ तो हाथों हाथ नगद धर्म की तरह प्राप्त होता हुआ सुनिश्चित रूप से अनुभव करेंगे। यह पारस से सटने का समय है। कल्पवृक्ष की छाया में बैठ सकने का अवसर है। प्रभात पर्व में जागरूकता का परिचय देकर हममें से हर किसी को प्रसन्नता, प्रफुल्ल्ता और सफलता की उपलब्धियों का भरपूर लाभ मिल सकता है।

उद्धृत लेख “महाकाल का प्रतिभाओं को आमंत्रण” पुस्तक की विशिष्ट पंक्तियाँ हैं

लेखक पंडित श्रीरामशर्मा आचार्य

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