राजनीतिक नाटक प्रजातंत्र के लिए घातक

एक समय था जब राजनीती से जुड़े लोग जनांदोलनों का वास्तविक नेतृत्व करते थे। आज स्थितियाँ बदल गई हैं। आज जनांदोलनों का नेतृत्व कम और नाटक ज्यादा होता है। आंदोलन में भाग लेने वाले कार्यकर्त्ता तथा जनता पुलिस लाठियां खाते हैं. आंसू गैस झेलते है और आंदोलन का नेतृत्व कर रहे नेता जी मुस्कराते हुए टीवी न्यूज चैनलों की ओर हाथ हिलाते हुए ससम्मान एक आरामदेह लग्जरी कार जो गिरफ़्तारी के नाटक अनुसार पहले से तैयार खड़ी रहती है। अपनी गिरफ़्तारी देते हैं। वर्तमान स्थिति ये जनहित से जुड़े आंदोलनों नेतृत्व करने वाले वास्तविक नेताओं दूर दूर तक पता है।

इन्ही राजनीतिक नाटकों चलते आम जनता का विश्वास प्रजातंत्र से उठता जा रहा है। और यही कारण है कि प्रत्येए लोकसभा और विधान सभा चुनाव में मतदान का प्रतिशत कम होता जा रहा है। क्योंकि जनता अब उतना मुर्ख नही रही जितना पहले थी। जनता धीरे धीरे इन तथा कथित नेताओं की वास्तविकता से अवगत होती जा रही है। जिस दिन देश की जनता पूरी तरह से जागरूक हो गई और राजनीतिज्ञों से पूरी तरह से अवगत हो गई वो दिन इस देश की चल रही प्रजातंत्र प्रणाली के लिए घातक होगा।

एक दो अपवादों को अगर छोड़ दे तो आज जमीन से जुड़े नेताओं का अभाव स्पष्ट नजर आता है। अगर प्रजातंत्र को बचाना है तो नेताओं को फाइव स्टार संस्कृति से हटकर जमीं से जुड़ कर नेतागिरी करनी होगी। धरना प्रदर्शन करके गिरफ़्तारी का नाटक बहुत दिन नहीं चलने वाला। आज जनता ढूढ़ रही है ऐसे नेताओं को जो उनकी समस्याओं को लेकर वास्तविक नेतृत्व कर सके। सामंती सोंच लेकर जनांदोलनों का नेतृत्व नहीं किया जा सकता और न ही भारत के लोकतंत्र की रक्षा की जा सकती है।

आज के नेता लोग जनता के हितों से अधिक अपने हितों की परवाह करते हैं। आज के नेताओं को अपनी कुर्सी की चिंता अधिक है। सत्ता के लिए ये कुछ भी कर सकते हैं। जनता के बारे में ये कुछ भी नहीं सोंचते की जनता उनके बारे में क्या सोंचती है।