मनुष्य और मनुष्यता

मनुष्य का मनुष्य के काम आना ही उसके मनुष्य होने का प्रमाण होता है जो मनुष्य होकर भी मनुष्य के काम न आवे उसे मनुष्य कहा ही नहीं जा सकता है। किसी कवि ने कहा भी है कि – “– मनुष्य वहीं है जो कि मनुष्य के लिये मरे”।आजकल मनुष्य के लिये मनुष्य का मरना तो दूर ढंग से उससे बात करने तक के लिये तैयार नहीं है।मनुष्य होने की पहचान मानी जाने वाली मनुष्यता या मानवता मनुष्य से दूर होती जा रही है।परहित को मनुष्य का श्रृंगार और स्वाभाव माना गया है।

और कहा भी गया है कि-” परहित सरिस धर्म नहि भाई, पर पीड़ा सम नहि दुखदाई”।परपीड़ा के अहसास व परहित की भावना मनुष्य को साधारण मानव से देवमानव बनाकर मनुष्य जीवन को धन्य बना देती है।इस समय दूसरे के दर्द यानी पीड़ा को सुनने की फुर्सत किसी के पास नहीं है हर मनुष्य व्यस्तता के नाम पर मानवता को नजरंदाज कर रहा है।दुर्घटना घटना के समय घायल मरणासन्न मनुष्यता के मोहताज रहते हैं उन्हें तत्काल सहायता की जरूरत होती है लेकिन बहुत कम लोग होते हैं जो मानवता का परिचय देते हैं।

लोग रूककर देख लेते है और मुँह फेरकर चले जाते हैं। एम्बूलेंस या पुलिस को फोन तक करना अपना फर्ज नहीं मानते हैं।बस रेल बैंक आदि जगहों पर बुजुर्गों को कोई महत्व नहीं दिया जाता है और कोई नहीं कहता है कि आप हमारी जगह आ जाइये।मनुष्य के अंदर से मनुष्यता वाले लक्षण दूर होते जा रहे है और उसका आचरण दानवता वाला होता चला जा रहा है। कलियुग अपना असर दिखा रहा है और बहुत कम ही लोग हैं जो मनुष्यता की राह पर चल रहे हों।कुछ लोग इस धरती पर मनुष्य के रूप में आसुरी प्रवृत्ति को बढ़ावा देने में जुटे हैं।

तुलसी बाबा ने लिखा है कि-” मानै मात पिता नहि वचना, साधुन से करवायै सेवा, जाके इ आचरन भवानी ते जानौ निशचर सम प्राणी”।गरीब असहाय व संत की सेवा व माता पिता और गुरू की आज्ञा मानना मनुष्य जीवन का मूल ध्येय माना गया है।ईश्वर भी उसी को पसंद करता है जो परहित व परपीड़ा के अहसास को अपनी जीवनशैली बना लेते हैं।
भोलानाथ मिश्र
वरिष्ठ पत्रकार/समाजसेवी
लेखक समीक्षक विचारक

 

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